कक्षा 10, जीव विज्ञान पाठ-6 जैव प्रक्रम से सम्बंधित उपयोगी नोट्स

 

कक्षा 10, जीव विज्ञान पाठ-6 जैव प्रक्रम
जैव प्रक्रम- जीवों में जीवित रहने के लिए होने वाली समस्त क्रियाओं को जैव प्रक्रम कहते हैं। जैसे-श्‍वसन।
श्‍वसन- जीवों में होने वाली ऐसी क्रिया जिसमें ऑक्सीजन की उपस्थिति में गलूकोज का ऑक्सीकरण होता है। तथा कार्बन डाई ऑक्साइड, जल व ऊर्जा मुक्त होती हो श्‍वसन कहलाती है। C6H12O6 + 6CO2 + 686KCal
श्‍वसन की विशेषताएं
1. यह एक अपघटनी अभिक्रिया है।
2. श्‍वसन क्रिया में ऑक्सीजन ग्रहण की जाती है। तथा कार्बन डाई ऑक्साइड मुक्त की जाती है।
3. श्‍वसन क्रिया दिन व रात अथवा चौबीसों घंटे होती है।
4. यह सभी जीवित कोशिकाओं में होती है।
5. यह माइटोकॉन्ड्रिया के सहयोग से होती है।
श्‍वसन दो प्रकार का होता है-
1. वायवीय श्‍वसन- यह श्‍वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है अत: इसे ऑक्सीश्वसन भी कहा जाता है। इस क्रिया में ग्लूकोज के पूर्ण ऑक्सीकरण से 686Kcal ऊर्जा, कार्बन डाई ऑक्साइड तथा जल का निर्माण होता है। यह ऑक्सीकरण माइटोकॉन्ड्रिया में होता है। जैसे मनुष्य में।
2. अवायवीय श्‍वसन- यह श्‍वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है अत: इसे अनाॅक्सीश्वसन भी कहा जाता है। इसमें गलूकोज के आंशिक ऑक्सीकरण से 21Kcal ऊर्जा, कार्बन डाई ऑक्साइड तथा एथिल एल्कोहॉल बनता है। यह क्रिया कोशिका के जीव द्रव्य में होती है। जैसे- यीष्ट, जीवाणुओं आदि में।
श्वसन की परिभाषा क्या है , इसके प्रकार , उदाहरण और मनुष्य के श्वसन तंत्र को जानने के लिए यहाँ क्लिक करें . 
पोषण- जीवों द्वारा विभिन्‍न पोषक पदार्थों जैसे - कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण, विटामिन आदि को ग्रहण करना एवं इन पोषक पदार्थों का उपयोग करना पोषण कहलाता है। पोषण दो प्रकार का होता है-
1. स्वपोषी पोषण
2. विषमपोषी अथवा परपोषी पोषण
1. स्वपोषी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें सजीव अपना भोजन पर्यावरण में उपस्थित सरल अकार्बनिक पदार्थों से स्वयं बनाते हैं, स्वपोषी पोषण कहलाता है। इन जीवों को स्वपोषी जीव कहा जाता है। जैसे- समस्त पेड़-पौधे। वह प्रक्रिया जिसमें हरे पेड़-पौधे सूर्य का प्रकाश एवं पर्णहरित की उपस्थिति में कार्बन डाई ऑक्साइड व जल ग्रहण कर ऑक्सीजन बनाते हों। प्रकाश संश्लेषण कहलाती है। यह क्रिया दिन में पर्णहरित की उपस्थिति में होती है। प्रकाश संश्लेषण के द्वारा पौधे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। इसीलिए पौधों को स्वपोषी भी कहते हैं। एवं इस पोषण को स्वपोषण कहते हैं।   6CO2 + 6H2O---->C6H12O6 + 6O2
स्वपोषी पोषण के लिए निम्न परिस्थितियां आवश्यक हैं-
(1) CO2 की उपस्थिति ।
(2) जल की उपस्थिति ।
(3) सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति ।
(4) पर्णहरित की उपस्थिति ।
स्वपोषी पोषण का मुख्य उत्पाद गलूकोज तथा उपउत्पाद ऑक्सीजन होता है।
पेड़ - पौधे भोजन बनाने के लिए आवश्यक सामग्री कैसे प्राप्त करते हैं?- हम जानते हैं की पेड़-पौधों में भोजन बनाने का कार्य मुख्य रूप से पत्तियों द्वारा किया जाता है। पत्तियों में उपस्थित हरितलवक प्रकाश ऊर्जा का अवशोषण करते हैं। इन्हें क्लोरोप्लाष्ट भी कहते हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड का अवशोषण पत्तियों एवं तने में उपस्थित रंध्रों द्वारा किया जाता है तथा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण जड़ों द्वारा किया जाता है। भोजन बनने के बाद इसे पौधे के विभिन्न भागों में भेज दिया जाता है। जिसके लिए संवहन ऊतक होते हैं। CAM पादपों में रन्ध्र केवल रात्रि में खुलते हैं। इन रंध्रों से ऑक्सीजन का भी निष्कासन होता है। इसके अलावा रंध्रों से पर्याप्त मात्रा में जल की भी हानि होती है। जब प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाई ऑक्साइड की आवश्यकता नहीं होती है ये रंध्रों को बन्द कर लेते हैं। रंध्रों का खुलना एवं बन्द होना द्वार कोशिका का कार्य है। द्वार कोशिका में जब जल अन्दर जाता है तो यह फूल जाती है और रन्ध्र खुल जाता है।
2. विषमपोषी अथवा परपोषी पोषण-  वह पोषण जिसमें सजीव अपना भोजन स्वयं न बनाकर दूसरों पर निर्भर होते हैं विषमपोषी अथवा परपोषी पोषण कहलाता है। जैसे- समस्त जन्तु परपोषी पोषण करते हैं।
अप्रकाशित क्रिया- यह क्रिया प्रकाश की अनुपस्थिति अथवा रात में पर्णहरित के स्ट्रोमा भाग में होती है। इस क्रिया में ATP खर्च होती है व कार्बन डाई ऑक्साइड का अपचयन होता है।
पेड़-पौधों में वहन पौधों में वहन निम्न दो संवहन ऊतकों द्वारा होता है- 1.जायलम 2. फ्लोएम
जायलम और फ्लोएम
1. जायलम- यह सवंहनी ऊतक मृदा से खनिज लवणों का अवशोषण कर नीचे से ऊपर पहूँचाता है।
2.फ्लोएम- यह ऊतक पत्तियों द्वारा बनाए गये भोजन को नीचे तक पहुँचाता है।
मनुष्य में ऑक्सीजन व कार्बन डाई ऑक्साइड का परिवहन- मानव में श्वसन क्रिया के लिए सहायक व मुख्य श्वसन अंग पाए जाते हैं जो निम्न हैं-
(a) सहायक श्वसन अंग-
1. बाह्य नासा छिद्र।
2. कंठ।
3. श्वसन नली।
4. नासा मार्ग
(b) मुख्य श्वसन अंग-
एक जोड़ी फेफड़े।
मनुष्य में श्वसन की क्रियाविधि:
     हमारे शरीर में वायु नासा छिद्र व नासा मार्ग से होती हुई श्वासनली में तथा श्वासनली से फेफड़ों में प्रवेश कर जाती है। नासा छिद्र में उपस्थित रोम(बाल) तथा श्लेष्मा वायु में से धूल मि्ट्टी जैसी अशुद्धियों को रोक लेते हैं। श्वसननली वक्ष गुहा में आकर दो भागों में विभक्त हो जाती है। प्रत्येक भाग अपने ओर के फेफड़े में प्रवेश कर अनेक शाखाओं में बंट जाती है। और अन्त में यह गुब्बारे के समान फूल जाती है। जिन्हें कूपिकाएं कहते हैं ये कूपिकाएं गैसों का आदान प्रदान करती हैं। यहीं से ऑक्सीजन रुधिर में है और कार्बन डाई ऑक्साइड रुधिर से हट जाती है। तथा वापस निकल जाती है।
मनुष्य में पोषण:
    मनुष्य एक परपोषी प्राणी है। मुख में भोजन जाने के बाद उसे चबाया जाता है। साथ ही लार ग्रन्थियों से निकलने वाले लालारस को मिलाया जाता है। इस लाररस की प्रकृति क्षारीय होती है। लार में उपस्थित लार एमिलेस एन्जाइम मंड के जटिल अणुओं को शर्करा में तोड़ देता है। क्षारीय प्रकृति के कारण लार अम्लीय प्रकृति के रोगाणुओं की नष्ट कर देती है। इसके बाद भोजन को आमाशय में भेज दिया जाता है। आमाशय से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, पेप्सिन एन्जाइम, श्लेष्मा स्रावित होता है। जो भोजन में उपस्थित क्षारकीय प्रकृति के रोगाणुओं को नष्ट कर देता है।इसके बाद भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है। यह आहारनाल का सबसे लंबा भाग है मांसाहारी जीवों की तुलना में शाकाहारी जीवों की आहरनाल लंबी होती है। क्योंकि सेल्यूलोज पचाने के लिए अधिक लंबी आहारनाल की आवश्यकता होती है।
          क्षुद्रांत्र कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा के पाचन का स्थल होता है। यकृत से स्रावित पित्तरस रस भोजन को पुन: क्षारीय बना देता है जिस पर अग्नाश्य से निकलने वाले एन्जाइम क्रिया करते हैं। क्षुद्रांत्र में वसा की गोलिकाओं का खंडन पित्त लवण द्वारा किया जाता है। जिससे इन पर एन्जाइमों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।अग्नाश्य से स्रावित अग्न्याशयिक रस में ट्रिप्सिन एन्जाइम होता है। जो प्रोटीन का पाचन करता है। तथा इम्लसीकृत वसा के पाचन के लिए लाइपेज एन्जाइम होता है। क्षुद्रांत्र की भित्ती में उपस्थित ग्रंथि आंत्र रस स्रावित करती हैं इसमें उपस्थित एन्जाइम प्रोटीन को अमीनों अम्लों में, कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज़ में तथा वसा को वसीय अम्ल तथा ग्लेसरोल में परिवर्तित कर देता है। इस पाचित भोजन को आंत्र के द्वारा अवशोषित किया जाता है। इसके लिए आंत्र में रोम पाये जाते हैं जो अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ा देते हैं। इन दीर्घ रोमों से बहुत अधिक संख्या में रुधिर बहिकाएं जुडी होती हैं. जो अबशोषित भोजन को शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं जहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने, नये उत्तकों का निर्माण करने व पुराने उत्तकों की मरम्मत करने में किया जाता है.
     यहाँ से बिन पचे भोजन को बड़ी आंत में भेज दिया जाता है जहाँ उपस्थित दीर्घरोम जल का अवशोषण कर लेते हैं और एनी पदार्थ गुदा द्वारा मल के रूप में बाहर त्याग दिया जाता जिसका नियंत्रण गुदा अवरोधनी द्वारा क्या जाता है.
अमीबा में पोषण- हमारे शरीर में वहन रुधिर द्वारा किया जाता है। रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है। तथा रुधिर में एक तरल माध्यम होता है, जिसे प्लैज्मा कहते हैं। प्लैज्मा भोजन, कार्बन डाई ऑक्साइड तथा नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थों का वहन करता है। तथा ऑक्सीजन का वहन लाल रुधिर कणिकाओं द्वारा किया जाता है। अत: इन सब के वहन के लिए एक पंपनयंत्र की आवश्यकता होती है।
हमारा पंप-हृदय- हृदय एक पेशीय अंग है। जो मुट्ठी के आकार का होता है।हमारा हृदय चार कोष्ठों में बंटा होता है। ताकि ऑक्सीजनित रुधिर विऑक्सीजनित में न मिल सके।  रुधिर को फेफड़ों में ऑक्सीजन को जोड़ना होता है। और कार्बन डाई ऑक्साइड को हटाना होता है। जब रुधिर फेफड़ों से अपने साथ ऑक्सीजन को जोड़ता है अथवा ऑक्सीजनित होता है तो यह हृदय के बायें आलिन्द में एकत्र होता है। इस दौरान यह शिथिल हो जाता है, तथा बायाँ आलिन्द संकुचित रहता है। इसके पश्चात एकत्र ऑक्सीजनित रुधिर बांयें आलिन्द से बांयें निलय मे प्रवेश करता है। इस दौरान बायाँ आलिन्द संकुचित हो जाता है तथा बायाँ निलय शिथिल हो जाता है। बांयें निलय की भित्ती मोटी होती है। जब यह संकुचित होता है तो ऑक्सीजनित रुधिर शरीर के सम्पूर्ण अंग तंत्रो तक पहुँच जाता है। इस प्रकार हमारा हृदय एक पंप की तरह कार्य करता है।
      हृदय से रुधिर जिन वाहिनियों से होते हुए विभिन्न अंग तंत्रों तक पहुँचता है, उन्हें धमनी कहते है। इनकी भित्ती भी मजबूत व लचीली होती है। क्योंकि रुधिर दाब से अधिक होने से फटने का डर होता है। विऑक्सीजनित (कार्बन डाइ ऑक्साइड युक्त रुधिर) रुधिर को विभिन्‍न अंग तंत्रो से जो रुधिर वाहिनियाँ वापस हृदय तक लाती हैं, उन्हें शिरा कहते हैं विऑक्सीजनित रुधिर विभिन्‍न अंग तंत्रों से आकर दायाँ आलिन्द में व दायाँ आलिन्द से दायाँ निलय में प्रवेश करता है। तथा दायाँ निलय से फेफड़ो में प्रवेश करता है। यहाँ से पुन: ऑक्सीजन रुधिर से जुड़ता है और वही चक्र पुन: शुरू हो जाता है। आपने देखा होगा कि विऑक्सीजनित रुधिर को ऑक्सीजनित होने के लिए दो बार हृदय से गुजरना पड़ा है। इसलिए इस तंत्र को दोहरापरिसंचरण तंत्र कहा जाता है।
प्लेटलैट्स द्वारा अनुरक्षण- प्लेटलेट्स हमारे पूरे शरीर में भ्रमण करती हैं, जब हम घायल हो जाते हैं तो रुधिर वाहिनियों के फटने से रुधिर स्राव होता है। इससे रुधिर की हानि होती है। तथा पंम्पिग दाब में कमी आती है। प्लैटलैट्स रुधिर स्रावित स्थान पर जाल बना लेती हैं। जिससे रुधिर का थक्का बन जाता है। और रूधिर का स्रावण रुक जाता है। तथा आक्रमण करने वाले रोगाणुओं को नष्ट कर अनुरक्षण का कार्य भी करती हैं। धीरे-धीरे घाव भर जाता है।
उत्सर्जन- वह जैव प्रक्रम जिसमें अपशिष्ट पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन कहलाता है।
मानव में उत्सर्जन- मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ी वृक्क, मूत्रवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग होता है। वृक्क उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों और होते हैं। रुधिर में से छनित नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिक अम्ल वृक्क में रुधिर से अलग कर लिए जाते हैं। इसके लिए पतली परत के रुप में कोशिकाओं का गुच्छा होता है जो अपशिष्ट पदार्थों को छान लेती हैं। छनित द्रव अपशिष्ट पदार्थ वृक्क से मूत्रवाहिनी में आते हैं। जो मूत्राशय में खुलती है। यहां एकत्र होकर मूत्र मार्ग द्वारा शरीर से बाहर त्याग दिए जाते हैं।
कृत्रिम वृक्क अपोहन -उत्तरजीवित के लिए वृक्क एक महत्वपूर्ण अंग है। यह संक्रमण, आघात या वृक्क में सीमित रुधिर प्रवाह के कारण अनियंत्रित हो सकता है जिससे इसकी कार्य क्षमता में कमी आ जाती है, और शरीर में विषैले अपशिष्ट को संचित करने लग जाता है। जो मृत्यु का कारण भी बन सकती है। इस स्थिति में कृत्रिम वृक्क का उपयोग कर सकते हैं। एक कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशिष्टों को रुधिर से अपोहन द्वारा निकलने का कार्य करता है। इस प्रकार मृत्यु से बचा जा सकता है।
वृकाणु (नेफ्रॉन)- नेफ्रॉन उत्सर्जन तंत्र की संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई होती है। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में लगभग दस लाख अतिसूक्ष्म नलिकाएं होती हैं जिन्हें नेफ्रॉन कहा जाता है। प्रत्येक नेफ्रॉन का प्रारम्भिक भाग प्याले के समान होता है। जिसे बोमेन सम्पुट कहते हैं। इस बोमेन सम्पुट के प्यालेनुमा भाग में रक्त नलिकाओं का जाल पाया जाता है। जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं।बोमेन सम्पुट व ग्लोमेरूलस दोनों मिलकर मैलपीगी कोश बनाते हैं। नेफ्रॉन का शेष भाग एक लंबी नलिका के रूप में होता है। वृक्क नलिकाएं आपस में संयोग करके संग्रह वाहिनियों में खुलती हैं। वृक्क की सभी संग्रह वाहिनियां अपनी ओर की मूत्रवाहिनियों में खुलती हैं। प्रत्येक मूत्र वाहिनी का अग्र भाग कीप की तरह चौड़ा होता हैं। जिसे पेल्विस कहते हैं। जबकि मूत्रवाहिनी का पिछला भाग लम्बी नलिका के रूप में होता है जो मूत्राशय में खुलता है।

पाठ 1 रासायनिक अभिक्रियाएं एवं समीकरण पढने के लिए यहाँ क्लिक करें. 

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